करीब चार से ज्यादा वर्ष बीत गए हमने कोई कविता नहीं लिखी....
पता नहीं पिछले शुक्रवार ३ सितम्बर की शाम को कैसे कुछ ख़याल आने लगे दफ्तर में काम करते करते.... जिनको पंकिबद्ध किया है....
नींद सी एक आती है आँखों में,
शायद कुछ ख्वाब भी देखो आयेंगे,
एक रोज़ जो ज़िन्दगी से मिले हम,
क्या कहा सुना बतलायेंगे....
उम्मीदों पर टिकी है जीवन की डोर,
न लगने देंगे इसमें गाँठ , हर तूफ़ान से टकरायेंगे,
हमारा साहिल कहीं अब दूर नहीं,
गर चलना ही है तो चलते जायेंगे....
कभी कभी यूँ मायूस सा रहता हूँ,
कभी कभी नाउम्मीद सा भी दिखता हूँ,
यही जीवन है, ऐसे ही चलता है,
यही में अपने दिल से कहता हूँ.............
विकास त्रिपाठी
Tuesday, September 7, 2010
Thursday, September 2, 2010
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