Wednesday, August 31, 2011

हालात के क़दमों पे कलंदर नहीं गिरता

हालात के क़दमों पे कलंदर नहीं गिरता
टूटे भी जो तारा, ज़मीं पे नहीं गिरता

गिरते हैं समंदर में बड़े शौक़ से दरया
लेकिन किसी दरया में समंदर नहीं गिरता

हैरान है कई रोज़ से ठहरा हुआ पानी
तालाब में अब क्यूं कोई कंकर नहीं गिरता

कायम है क़तील अब ये मेरे सर के सुतून पर
भून्चाल भी आये तो मेरा घर नहीं गिरता

क़तील शिफाई

आदमी आदमी से मिलता है

आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है

भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वोह कुछ इस सादगी से मिलता है

मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है

है आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हंसी से मिलता है

कारोबार-ऐ -जहां संवारते हैं
होश जब बेखुदी से मिलता है

ज़िन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा

ज़िन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा
काफिला साथ और सफ़र तन्हा

अपने साये से चौंक जाते हैं
उम्र गुजरी है इस कदर तन्हा

रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तन्हा

दिन गुजरता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तन्हा

हमने दरवाजे तक तो देखा था
फिर ना जाने गए किधर तन्हा

Saturday, August 6, 2011

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा.....

हम जब कक्षा एक में पढ़ते थे तब सुबह सुबह इ प्रार्थना में ये गीत बाते थे एक पंक्ति में खड़े होकर। सब बच्चे ५-५ ६-६ की पंक्तियों में होते थे और बारी बारी से एक गोल गोल घुमने वाले झूले की सैर करते थे। एक बार में एक पंक्ति के बच्चे जाया करते थे। वो भी एक दिन था की जब ये नीचे लिखी पंक्तियाँ बोलते थे सिर्फ बोलने के लिए, समझ में क्या और कितना आता था भगवन ही जनता है शायद, पर हाँ बार बार एक आँख खोल कर ये जरुर देखते थे की कब आएगी हमारी बारी। पर शायद आज ये जरुर याद आता है की हम ख़ुश नसीब थे जो हर रोज सुबह ये पंक्तियाँ गया और गुनगुनाया करते थे।


सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा हम बुलबुलें हैं इसकी वो गुलसिताँ हमारा

ग़ुरबत में हों अगर हम रहता हो दिल वतन में समझो वहीं हमें भी दिल है जहाँ हमारा

परवत वो सब से ऊँचा हम साया आसमाँ का वो संतरी हमारा वो पासबाँ हमारा

गोदी में खेलती है इसकी हज़ारों नदियाँ गुलशन हैं जिनके दम से रश्क-ए-जहां हमारा

ए आब-ए-रूद-ए-गंगा वो दिन है याद तुझको? उतरा तेरे किनारे जब कारवाँ हमारा

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गए जहाँ से अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशान हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा

इक़्बाल कोई मेहरम अपना नहीं जहाँ में मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा


इसे डॉ मोहम्मद इकबाल साहब (जिन्हें हम अल्लामा इकबाल के नाम से भी जानते हैं) ने लिखी थी जो "इत्तेहाद" नाम की एक साप्ताहिक पत्रिका में १६ अगस्त १९०४ में छपी थी।

इससे जुडी और भी ढेर साड़ी बातें हैं जो बाद में की जाएँगी।

जय हिंद जय भारत !!!!

The Siachen Glacier - Indian Army - Jana Gana Mana - Jai Hind